Author : Nilanjan Ghosh

Published on Sep 03, 2020 Updated 0 Hours ago

विकास एक बहुआयामी तथ्य है जिसके लिए संस्थानों, प्रक्रियाओं और ढांचे का ख़ाका खींचना ज़रूरी है ताकि आर्थिक बढ़ोतरी, सामाजिक तरक़्क़ी और सांस्कृतिक समृद्धि के अलावा निरंतरता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके. लेकिन इसे अक्सर भुला दिया जाता है.

“ग़रीबों की GDP” के लिए पर्यावरण संरक्षण को हर किसी से जोड़ना होगा

औद्योगिकरण को अपनाने वाले नये देशों में बेपरवाह आर्थिक विकास जारी रखने की अनियंत्रित महत्वाकांक्षा ने असंतुलित विकास को जन्म दिया है जिसकी वजह से एक तरफ़ असमानता को बढ़ावा मिला है और दूसरी तरफ़ प्राकृतिक वातावरण नष्ट हुआ है. दुनिया के इस हिस्से में विकास के दृष्टिकोण का विश्लेषण इस तथ्य से समझा जा सकता है कि विकास का मतलब एक आंकड़े से रह गया है जो बताता है कि GDP में कितनी बढ़ोतरी हुई है. एक बहुआयामी तथ्य जिसे “विकास” कहा जाता है, उसका महज़ आंकड़ों में सिमट जाना कुछ बताने से ज़्यादा छिपाता है. ये सफलतापूर्वक छिपाता है कि अदूरदर्शी तरक़्क़ी के रास्ते की क़ीमत क्या है, समानता और निष्पक्षता की चिंताओं के लिए जहां नाममात्र या लगभग नहीं स्वीकृति है. विकास एक बहुआयामी तथ्य है जिसके लिए संस्थानों, प्रक्रियाओं और ढांचे का ख़ाका खींचना ज़रूरी है ताकि आर्थिक बढ़ोतरी, सामाजिक तरक़्क़ी और सांस्कृतिक समृद्धि के अलावा निरंतरता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके. लेकिन इसे अक्सर भुला दिया जाता है.

एक बहुआयामी तथ्य जिसे “विकास” कहा जाता है, उसका महज़ आंकड़ों में सिमट जाना कुछ बताने से ज़्यादा छिपाता है. ये सफलतापूर्वक छिपाता है कि अदूरदर्शी तरक़्क़ी के रास्ते की क़ीमत क्या है, समानता और निष्पक्षता की चिंताओं के लिए जहां नाममात्र या लगभग नहीं स्वीकृति है.

प्राकृतिक वातावरण की बर्बादी के रूप में हमें अदूरदर्शी विकास की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी है. इसे समझने के लिए हमें आधुनिक समाज की तरफ़ देखने की ज़रूरत है. “आधुनिकता” की मौजूदा रूप-रेखा उपभोग करने के लिए काफ़ी झुकाव पर केंद्रित है. निस्संदेह “उपभोग की संस्कृति” जिस शब्द का अक्सर इस्तेमाल होता है, उसे “आधुनिकता” की कसौटी के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है. औद्योगिकरण को अपनाने वाले नये देशों में देखें तो “खपत पर आधारित विकास” अब चीन के लिए नीतिगत दृष्टिकोण बन गया है. दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और लैटिन अमेरिका के लिए 90 के दशक से खपत आर्थिक विकास को चलाने वाला बन गया है.

विकास का जटिल आकार पिछले चार दशकों में ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव के रूप में महसूस हुआ है. जंगल की ज़मीन का इस्तेमाल गैरटिकाऊ खेती (जैसा मलेशिया में पाम की खेती) और शहरी केंद्रों (जैसे भारत में मुंबई जैसे शहरों का विकास) में हुआ है, हवा और पानी में गंदगी को डाला गया (ज़्यादातर पूर्व और दक्षिण एशिया में), और बड़ी परियोजनाओं के ज़रिए नदियों के प्रवाह में बदलाव किया गया (जैसे ह्वांगहो और मेकॉन्ग नदी पर चीन की योजना और भारत की बड़ी बहु उद्देशीय नदी परियोजनाएं). इस बेपरवाह आर्थिक विकास के मॉडल में जिस बात को भुला दिया गया वो है वातावरण-आजीविका में संपर्क को लेकर चिंताएं.

हालांकि, इसके बावजूद वातावरण-आजीविका में संपर्क को लेकर चिंता 70 के दशक से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जताई जा रही है. ये वो वक़्त था जब अमेरिका ने ये मानना शुरू कर दिया था कि 1920 से लेकर 1960 तक उसके बांध बनाने के दौर ने न सिर्फ़ नदियों की धारा बदलकर नदी के आस-पास की ज़मीन के वातावरण पर असर डाला बल्कि प्रकृति इंसानों को मुफ़्त में जो वातावरण मुहैया कराती है उसके लिए भी नुक़सानदेह साबित हो रही है. यूरोपीय यूनियन (EU) ने अमेरिका का अनुसरण किया. इसलिए 90 के दशक में अमेरिका और EU ने 500 से ज़्यादा बांधों के निर्माण पर रोक लगा दी ताकि पानी की धारा बनी रहे. इसी तरह जंगलों का आकलन न सिर्फ़ उनके द्वारा मुहैया कराई जाने वाली लकड़ी को लेकर शुरू हुआ बल्कि पर्यावरण को बचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर भी.

जब अमेरिका ने ये मानना शुरू कर दिया था कि 1920 से लेकर 1960 तक उसके बांध बनाने के दौर ने न सिर्फ़ नदियों की धारा बदलकर नदी के आस-पास की ज़मीन के वातावरण पर असर डाला बल्कि प्रकृति इंसानों को मुफ़्त में जो वातावरण मुहैया कराती है उसके लिए भी नुक़सानदेह साबित हो रही है.

विकसित देशों में इस प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता ज्ञान और विज्ञान में तरक़्क़ी है. 70 के दशक से प्राकृतिक वातावरण को लेकर वहां समझदारी बढ़ी है. 1972 में क्लब ऑफ रोम की तरफ़ से द लिमिट्स ऑफ ग्रोथ थेसिस में क़यामत की बात कही गई. 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में आख़िरकार “सतत विकास” पर ब्रण्डटलैंड कमीशन रिपोर्ट की परिभाषा को अपना लिया गया.

1992 में जैव विविधता समझौता (CBD) वैश्विक मंज़ूरी के लिए खुला और ये दिसंबर 1993 से लागू हो गया. इसके लागू होने से अंतर्राष्ट्रीय तौर पर एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य को माना गया: जैव संरक्षण विकास के ख़िलाफ़ नहीं है बल्कि विकास की प्रक्रिया का एक हिस्सा है. 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत में पर्यावरण और विकास को लेकर लोगों की सोच में बदलाव आया. एक तरफ़ वैश्विक समझौते के अलावा सर्कुलर इकोनॉमी पर डेविड पीयर्स और केरी टर्नर की महान कृति ने लोगों की सोच को बदला कि व्यापक प्राकृतिक वातावरण से मानवीय प्रणाली जुड़ी हुई है. वातावरण को निचोड़ने से अक्सर “प्राकृतिक पूंजी” पर दबाव पड़ता है और इसकी वजह से वातावरण की दुर्दशा होती है.

90 के दशक के आख़िर से ग्रेटचेन डेली और बॉब कॉस्टान्ज़ा के आकलन में मानवीय समाज में प्रकृति के योगदान की अहमियत को लेकर चर्चा की गई. 2005 के मिलेनियम इकोसिस्टम एसेसमेंट (MA) के साथ वातावरण को समझने की कोशिश की गई. नीति निर्माताओं के लिए विज्ञान की व्याख्या करते हुए MA इस बात को सामने लाया कि वातावरण अपने अनोखे तरीक़े से मानवीय समाज को फ़ायदा पहुंचाता है जैसे कि मुहैया कराने वाली सेवाएं (जैसे खाद्य, कच्चा माल, आनुवंशिक संसाधन, पानी इत्यादि), विनियमन सेवाएं (जैसे कार्बन अधिग्रहण, जलवायु नियमन, बीमारी नियंत्रण इत्यादि), सांस्कृतिक सेवाएं (जैसे पर्यटन, धर्म इत्यादि) और सबसे बढ़कर समर्थन वाली सेवाएं जो दूसरी तीन वातावरण की सेवाओं (जैसे प्राथमिक उत्पादन, मिट्टी के निर्माण इत्यादि) के उत्पादन में मदद करती हैं. ये बातें सामने लेकर आईं कि “प्राकृतिक पूंजी” पर मानवीय समाज पूरी तरह निर्भर है.

इसने विकसित देशों में संरक्षण के काम में लगे NGO के काम-काज के तरीक़ों में भी बदलाव किया. उन्हें ये बात समझ में आई कि संरक्षण के लिए सिर्फ़ पर्यावरणीय तर्क काफ़ी नहीं हैं. ऐसे तर्क उस तरह का असर नहीं डाल पाते जैसा असर होना चाहिए क्योंकि वो रोज़ाना की ज़िंदगी और काम-काज से जुड़े नहीं हैं. इस प्रक्रिया में ऐसी बातें मूलभूत मानवीय अस्तित्व से हटकर मानी गईं. वातावरण की सेवाओं के मूल्यांकन के साथ ये सोच बदलने लगी. आज विकसित देशों का एक बड़ा हिस्सा संरक्षण को अपना प्रमुख काम-काज मानने लगा है जो उनके दीर्घकालीन फ़ायदे से जुड़ा है. अफ़सोस की बात ये है कि औद्योगिकरण को अपनाने वाले नये देशों में इस तरह की सोच नहीं है वो भी तब जब वहां लोगों की आजीविका वातावरण के साथ मज़बूती से जुड़ी है.

ग़रीबों की GDP” के तौर पर प्राकृतिक पूंजी

“प्राकृतिक पूंजी” की अहमियत को पहचानने का सबसे अच्छा तरीक़ा है वातावरण की सेवाओं का मौद्रिक आकलन. इसके पीछे कई औचित्य हैं. पहला औचित्य ये है कि अगर वातावरण की सेवाओं का आकलन पैसे में किया जाना शुरू किया जाए तो लोग उसका महत्व समझने लगेंगे और अपने स्वार्थ की वजहों से संरक्षण के उद्देश्य का समर्थन करने के बारे में सोच सकते हैं. इसकी वजह से संरक्षण के मक़सद को मदद मिलेगी. दूसरा औचित्य ये है कि मूल्यांकन से फ़ैसला लेने में मदद मिलती है. तीसरा औचित्य ये है कि इस तरह के मूल्यांकन से क़ानूनी कार्यवाही में भी मदद मिलती है क्योंकि इससे पता चलता है कि वातावरण की सेवाओं में नुक़सान के लिए एक व्यक्ति कितना ज़िम्मेदार है. चौथा औचित्य ये है कि वातावरण की सेवाओं में नुक़सान के मूल्यांकन से पता चलता है कि कितने मुआवज़े का भुगतान करना है. पांचवां औचित्य ये है कि वातावरण की सेवाओं की क़ीमत को निवेश परियोजनाओं में जोड़ने से ये पता चलता है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास से प्रकृति को कितना नुक़सान होने वाला है. छठा औचित्य ये है कि इस तरह के मूल्यांकन वातावरण की सेवाओं के बाज़ार को बनाने में मदद करते हैं जिससे सतत विकास की परियोजनाओं में वित्तीय मदद मिलती है.

2009 में नेचर में प्रकाशित पवन सुखदेव के रिसर्च पेपर में वातावरण की सेवाओं के मूल्यांकन में महत्वपूर्ण आयाम के बारे में बताया गया जहां उन्होंने इस मूल्य की व्याख्या “ग़रीबों की GDP” के तौर पर की. ये औद्योगिकरण से जुड़े नये देशों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. सुखदेव ने दिखाया कि भारत में ग़रीबों की 57% आमदनी प्रकृति से होती है जबकि ज़्यादा आमदनी वाले लोगों के लिए ये अनुपात काफ़ी कम है. 2010 में प्रकाशित दी इकोनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम्स एंड बायोडायवर्सिटी (TEEB) में भी “ग़रीबों की GDP” की धारण है.

वातावरण पर ग़रीबों की निर्भरता दूसरे लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा है क्योंकि वो अलग-अलग “आर्थिक” स्रोतों के मुक़ाबले वातावरण की सेवाओं से ज़्यादा कमाते हैं. इससे वातावरण की सेवाओं को “ग़रीबों की GDP” का नाम देने का दावा मज़बूत होता है.

ये WWF इंडिया के लिए उत्तराखंड में तराई के परिदृश्य पर मेरी रिसर्च से भी साफ़ है. उस रिसर्च में मैंने अनुमान लगाया कि वातावरण की चुनी हुई नौ सेवाओं का कुल मूल्य 2015-16 में क़रीब 6 अरब अमेरिकी डॉलर था. इससे ये पता चलता है कि अनियंत्रित मानवीय दखल के ज़रिए प्राकृतिक वातावरण को नष्ट करने का मतलब है 6 अरब अमेरिकी डॉलर को नष्ट करना. दिलचस्प बात ये है कि 2005-06 में तराई के परिदृश्य में जहां वातावरण पर निर्भरता इंडेक्स 1.19 था वहीं ये अनुपात 2011 में घटकर 0.52 और 2015 में 0.41 हो गया. इसमें कमी की वजह ये है कि वातावरण की नौ सेवाओं के अलावा दूसरे स्रोतों से आमदनी बढ़ी है. दूसरी तरफ़ वहां रहने वाले ग़रीबों के लिए इसका बड़ा तात्पर्य है जहां आधी से ज़्यादा आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है. वातावरण पर ग़रीबों की निर्भरता दूसरे लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा है क्योंकि वो अलग-अलग “आर्थिक” स्रोतों के मुक़ाबले वातावरण की सेवाओं से ज़्यादा कमाते हैं. इससे वातावरण की सेवाओं को “ग़रीबों की GDP” का नाम देने का दावा मज़बूत होता है.

 इससे ये भी सामने आता है कि जब विकास के उद्देश्य को हासिल करने के लिए ज़मीन का इस्तेमाल बदलता है तो ऐसे “विकास” की लागत “ग़रीबों की GDP” के नुक़सान के रूप में दिखती है. विकासशील और अविकसित देशों में आर्थिक विकास की अल्पकालीन सोच ये है कि ऐसी “विकास की लागत” को अक्सर नहीं माना जाता है. इस महत्वपूर्ण लागत को नज़रअंदाज़ करने से किसी परियोजना की सामाजिक लागत बढ़ जाती है और इसकी वजह से अक्सर सामाजिक संघर्ष होते हैं. इसकी वजह से वातावरण की सेवाओं के मूल्यांकन का मामला बनता है जिसे परियोजना की लागत में जोड़ना चाहिए. ऐसे मूल्यांकन के ज़रिए ही संरक्षण को हर किसी के साथ जोड़ा जा सकेगा. तब वो सिर्फ़ NGO और मंत्रालयों से नहीं जुड़ा रहेगा. ऐसा आंदोलन एक तरफ़ संपूर्ण विकास की योजना में मदद करेगा, दूसरी तरफ़ समानता, क्षमता और निरंतरता के बीच सामंजस्य स्थापित करेगा.

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